आओगी तो ज़रूर !

कितना भी ऐंठ लो
तय मानो
जिनके बूते
घमंड के हिंडोले पर
भर रही हो प्रेम की पींगें/
वे नहीं दे सकेंगे
अंत तक साथ !
तुम्हारी प्रतिकूलताएं
हर किसी को बर्दाश्त
नहीं हो सकतीं।
यह भी नहीं हो सकता कि
आगोश में किसी और को समेटे
फोन पर
बहलाती रहो पक्षी।
सोने के पिंज़रे
या
भव्य आरामगाहें
हमेशा सुकून का सबब नहीं होतीं
अंततः
कभी न कभी
टीसने ही लगता है
मन का वह कोना
जिसे तुमने
मगरूरी की चादर
ओढा रखी है।
तुम मुझ तक आओगी तो ज़रूर
लेकिन
तब तक क्या पता
दरिया में कितना
पानी बह चुका हो....!

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