यही सच है !

यकीन का टूटना
दरअसल
यकीन का टूटना
नहीं होता।
टूटता तो आदमी है/
आदमी....!
जो, एक लड़की को
टूटकर चाहता है,
तोड़ देता अपने सारे रिश्ते-नाते/
और
खुद भी टूट जाता है/
आदमी.....!
जो, एक लड़की के लिए
हो जाता है दीवाना
मान लेता है उसे
अपना 'मैं'
उसी में देखता है
कायनात के सारे ओर-छोर
और
ख़त्म कर देता है
अपनी सारी कायनात।
आदमी.....!
जब लड़की से मिला था/
तो, उसका अपना
वजूद भी था/
लड़की का वजूद कायम रहे
दो अलग-अलग वजूदों की
ज़रुरत ही क्या है...
लिहाज़ा उसने
अपना वजूद मिटा दिया।
आदमी....!
सालों-साल
लड़की के नचाये नाचा
उसके उठाये उठा
उसके बिठाये बैठा
लड़की ने कहा दिन...तो दिन
लड़की ने कहा रात...तो रात।
लड़की ने
उसे दुनिया के सारे रंग दिखाए
खूब इन्द्रधनुष रचे
खूब केलि-कथाएं बांची
उत्तप्त उसांसो से
तपा दिए वातायन।
एक दिन.....!
एक दिन अचानक ही
लड़की ने कहा,
मुझे ये सब अच्छा नहीं लगता...!
आदमी को लगा
कानों में पिघल रहा है लोहा.../
डोल रहा है
भरोसे का आकाश
मर रहे हैं सपने
टूट रहे हैं तारे
लेकिन
वह करता भी क्या ?
यकीन की फटी पोटली
को हाथ में थामे
ठगा सा खड़ा रहा
सच्चे मन से
इतना ज़रूर कहा
ठीक है....
जहाँ भी रहो
खूब खुश रहो।
यह तो
तुमने भी सुना ही होगा।
है न ?




टिप्पणियाँ

  1. ये व्यथा दोनों तरफ हो सकती है ,एक स्वाभाविक सा मोह और दर्दनाक अंत . आपने अच्छा लिखा है .

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  2. shikayaton ka koi aant nhi hota na ho sakta he ye khatm to samwad khatm samwad khatm to wo ladki b khatm

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  3. जहां भी रहो ,खूब खुश रहो...प्रशंसनीय कविता।

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