यथार्थ

पहाड़ और बादल
का भी
अजीब नाता है।
पहाड़.....
ऊँचा....और ऊँचा
और भी ऊँचा...
होने को उतावला...
बादल......
नीचे.....और नीचे...
और भी नीचे
आने को आतुर...
एक
ऊंचाई के
भयावह एकांत से
अपरिचित...!
दूसरा
गहराई के
सतत संताप से
अभय...!

ऊपर और नीचे
जाने के क्रम में
एक समय
दोनों समानांतर
हो ही जाते हें
यह मिलना नहीं है
मिलने की
प्रतीति भर है।

ठीक ऐसे ही तो
एक समय
हम दोनों भी
समानांतर हुए थे
मिलने की प्रतीति ने
प्रवंचनाओं से
प्रगल्भित कर दिया था
मन का अन्तःपुर .....
प्रतीति तो
प्रतीति ही होती है
यथार्थ
तो अब जाना है
अब तो....
तुम अनंत आसमान में हो
मैं अतल रसातल में
फिर मिल पाने की
कहीं कोई
गुंजाइश ही नहीं।



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