अलबत्ता....!

नीम का पेड़ हो
या
देह की बौर,
निमिष मात्र में
बदल देते हैं
मन का मौसम।
अलबत्ता....
किसी भी मौसम में
नहीं बदलता है
गंध का मिजाज़।
मत्स्यगंधा न होने पर भी
दिग-दिगंत तक फैली
तुम्हारी सुगंध......
जाने किस-किस को
तुम तक ले आई।
आये और खेत रहे...
बेचारे.....!
अगला बेचारा
कितना बे-चारा है/
रणविजयी
हो लौटा तो
आँगन में हारा है।


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