आज एक ग़ज़ल बहुत पसंद आई। आप भी पढ़िए।
वही आंगन, वही खिड़की, वही दर याद आता है,
मैं जब भी तन्हा होता हूँ, मुझे घर याद आता है।
मेरे सीने की हिचकी भी, मुझे खुलकर बताती है,
तेरे अपनों को गाँव में, तू अक्सर याद आता है।
जो अपने पास हों उनकी कोई क़ीमत नहीं होती,
मेरे महबूब को ही लो, बिछड़कर याद आता है।
सफलता के सफ़र में तो कहाँ फ़ुर्सत कि कुछ सोचें
मगर जब चोट लगती है, मुक़द्दर याद आता है।
मई और जून की गर्मी बदन से जब टपकती है,
नवम्बर याद आता है, दिसम्बर याद आता है।
वही आंगन, वही खिड़की, वही दर याद आता है,
मैं जब भी तन्हा होता हूँ, मुझे घर याद आता है।
मेरे सीने की हिचकी भी, मुझे खुलकर बताती है,
तेरे अपनों को गाँव में, तू अक्सर याद आता है।
जो अपने पास हों उनकी कोई क़ीमत नहीं होती,
मेरे महबूब को ही लो, बिछड़कर याद आता है।
सफलता के सफ़र में तो कहाँ फ़ुर्सत कि कुछ सोचें
मगर जब चोट लगती है, मुक़द्दर याद आता है।
मई और जून की गर्मी बदन से जब टपकती है,
नवम्बर याद आता है, दिसम्बर याद आता है।
अच्छी लगी रचना आपकी मुवारक हो
जवाब देंहटाएंबेहतरीन..रविन्द्र भाई.
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