रक्त में घुला कैंसर


मैं तेरे बदन से
लिपटा हुआ लिबास नहीं

जो

वक्त - ऐ - वस्ल

ख़ुद से

अलग करके

पलंग के पैताने

फेंक सको।


मैं गले में पडा

मंगलसूत्र भी नहीं

जो

अन्तरंग लम्हों में

अक्सर उतार देती हो

ताकि

चुभे नहीं ,

और

अनवरत रहे आनंद !


और न ही मैं

पिता या पति की तरह

इत्तफाक से बन गया

कोई रिश्ता हूँ।

जो

बर्दाश्त से

बाहर हो जाने पर

तोड़ दो ।


मैं

तुम्हारा मैं हूँ -----

रक्त में घुल चुका कैंसर

जो मौत से पहले

अलग नहीं हो सकता

ये .....

तुम्हारी बदकिस्मती है

और --- मेरी नियति !

- रवीन्द्र

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