एक बात तो तय है .... बुजुर्गों ने कोई बात यूँ ही नहीं कही। वे हज़ारों-हज़ार कोशिशों के बाद भी स्त्री को नहीं समझ पाए और अंततः यह कहने को विवश हुए कि त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यम , देवो न जानति कुतो मनुष्यं ! मैंने हमेशा ही इस अवधारणा का मजाक उड़ाया। मुझे लगता था स्त्री तो बहुत सरल, सुगम्य और सुबोध है। उसके साथ सच जियो तो बदले में भी सच ही मिलेगा। आज ही एक मित्र ने पूछा, रिश्ते होते हैं तो खोते क्यों है ? फिर खुद ही जवाब भी दिया, दरअसल रिश्ता नाम की कोई चिड़िया है ही नहीं .....जिसे हम रिश्ता कहते हैं वह तो सफ़र काटने के लिए होने वाली बातचीत का एक बहाना भर है। जिसकी मंजिल पहले आ जाएगी वह अलग होगा ही ...... कभी न मिलने के लिए। मित्रवर अपनी ही बात पर ठठाकर हँसे और बोले- मियां रिश्ता तो रिसता ही है....इसे दिल पर क्या लेना। बात तो सच थी, पर हज़म नहीं हुई। हम तमाम रिसने वाली चीजों को रिसने से रोक लेते हैं तो रिश्ते का रिसना नहीं रोक सकते ? फिर याद आया, कुछ कर गुजरने के लिए, मौसम नहीं मन चाहिए। अब मन दस-बीस तो हुए नहीं....ज़ाहिर है एक समय में एक का ही हो सकता है..... शायद यही वह बिंदु है जहाँ से स्त्री का वह व्यव्हार शुरू होता है जिसे त्रिया का चरित्र और पुरुष का भाग्य कहा गया है।आपका क्या ख्याल है ?
manbhavan.narayan narayan
जवाब देंहटाएंnarayan narayan hariom kashi kashi
जवाब देंहटाएंबहुत सहि
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