नमस्ते

'तुम पागल हो।'
'शायद।'
' शायद नहीं, यकीनन।'
' तो।'
' तो, भुगतो।'
' भुगत लूँगा।'
' प्यार किया ?'
' रब जाने।'
' खता खाई।'
' न्ना।'
' छोड़ गयी ?'
' छोड़ आया।'
' कहाँ ?'
' मुकाम पर।'
' मुकाम बोले तो ?'
' पिया का घर।'
' पिया ?'
' पति।'
' पति ?'
' पिया।'
' पिया पति है ?'
' है।'
' पति पिया है ?'
' है।'
' तुम क्या हो ?'
' पता नहीं ?'
' --- या हिम्मत नहीं ?'
' हिम्मत ?'
' हाँ हिम्मत।'
' किस बात की ?'
' आइना देखने की ।'
' आईने में क्या है ?'
' सच।'
' सच क्या है ?'
' कुछ नहीं ?'
' कुछ नहीं ?'
' हाँ, तुम उसके कुछ भी नहीं।'
' मैंने कब कहा ?'
' सोचा तो !'
' सोचा तो यह भी कि मैं ऐश के साथ सोया हूँ।'
' गुड !'
' व्हाट गुड ?'
' सोचते बढिया हो।'
' आदमी भी बढिया हूँ।'
' फ़िर ?'
' क्या फ़िर ?'
' फ़िर दिक्कत क्या है ?'
' तुम्हें नहीं पता ?'
' है न।'
' फ़िर ?'
' क्या फ़िर ?'
' तेरा सिर।'
' ---- अच्छा एक बात बताओ।'
' क्या ?'
' तुम उससे मिले.... ।'
' हाँ.... ।'
' टोको मत सुनते जाओ।'
' ओके।'
' ... तुमने उसे देखा---देखते ही पसंद आ गयी---फिट करने में जुट गये---- '
' कौन सी भाषा बोल रही हो .... ?'
' बात पर ध्यान दो, भाषा पर नहीं।'
' ठीक है सुनाओ।'
' --- फिट कर भी लिया। लेकिन इस चक्कर में एक गडबड हो गयी ?'
' क्या ?'
' तुम उस से सचमुच मोहब्बत करने लगे!'
' ऐसा ?'
' हाँ, ऐसा।'
' फ़िर ?'
' फ़िर तुम उलझ गये। तुम्हारे हाथ कारून का खजाना लग गया। ऐसी कच्ची मिटटी, जिसे जैसे चाहो गढ़ सको। तुम बौरा गये।'
' फ़िर ?'
' एक पहलू में मोहब्बत थी, दूसरे में स्नेह। इन दोनों भावों के बीच का जो रिश्ता होता है वह तुम दोनों के बीच पनप चुका था। स्नेह सृजन का इतिहास रचना चाहता था...... मोहब्बत प्यार के हिंडोले झूलने को बेताब थी। इस दुविधा में तुम कन्फ्यूज हो गये। तुम ठहरे यूज एंड थ्रो के आदी। बहते पानी की तरह कभी इस घाट तो कभी उस घाट। है न ?'

' शायद....'

' उसके साथ भी सब नया-नया सा हो रहा था। अब तक जो भी मिले प्रेम के ही पुजारी मिले। ये पहला ऐसा शख्स था जो बातों में दिलचस्पी लेता था। जो उसके किस्सों से ऊबता नहीं था, बल्कि उन्हें बडे कौतुक से सुनता थाजो बडी दिलचस्पी से उसके प्रेमियों का विश्लेषण करता । जो उसकी अल्हड हरकतों पर ठहाके लगाता था। दूसरों से बिल्कुल अलग सा कोई लगे तो उससे एक अजाना सा अपनापा हो ही जाता है। तुम्हारे केस में भी यही हुआ।'

' तो ?'

' फ़िर तुम भी उसे अपने किस्से सुनाने लगे। अचानक उसे लगा कि तुम उसकी बातों में तो दिलचस्पी लेते हो उसमें नहीं। कोई भी औरत , खास तौर से जवान होती लडकी यह बर्दाश्त नहीं कर सकती कि उसकी सोहबत में रहने वाला मर्द उसमें दिलचस्पी न ले। यह तो तौहीन हो गयी। इधर तुम बडी खूबी से सुबी के किस्से सुनाने लगे। उसे बताते कि सुबी कैसे तुम्हारी साज -संवार करती है। उसके लिए यह सब थ्रिल था। सुबी को चैलेन्ज की तरह ले लिया। यही तो तुम चाहते थे। शिकार अपनी मर्जी से जाल में फंस गया।'

'----- ऐसा तो नहीं था।'

' ऐसा ही था। तुम उसे बताते कि सुबी ऐसा करती है----वह उस काम को ठीक वैसे ही बल्कि उससे भी बेहतर ढंग से करती। तुम उसके प्रेमियों की परवाह करते तो वह निहाल हो जाती। सोचती कैसा अद्भुत आदमी है जो उसके दोस्तों से चिढ़ने के बजाय उनकी फ़िक्र करता है।'

' मैं इरादतन ऐसा करता था ?'

' बिलकुल ! लेकिन तुम उसके ज़ज्बे से हार गये। तुम्हें मोहब्बत हो गयी। फ़िर भी इज़हार नहीं किया। उसे भी मोहब्बत हो गयी। उसने भी इज़हार नहीं किया। एक दिन तुम्हें ना जाने क्या सूझी, उसके लिए अंगिया खरीदने निकल पडे। पूरा बाज़ार छान मारा। मन की अंगिया न मिली। तीन दिन तक यही करते रहे। आख़िर वासंती रंग की स्ट्रिप्लेस, सतरंगी स्पोर्ट्स ब्रा और दो श्वेत चोलियाँ लेकर उससे मिलने पहुँच गये। याद तो है न ? '

' ये भी कोई भूलने वाली बात है ?'

' तुम देर तक बैठे। रोज की तरह उससे दिन भर के किस्से सुने। ढेरों बातें कीं दुनिया भर कीं। जब चलने की बारी आई तो हाथ का पैकेट उसे थमाया। उसकी सवालिया निगाहों के जवाब में तुमने केवल इतना कहा कि रूम में जाकर ख़ुद ही देख लेना। फ़िर रात में तुम्हारे पास उसका फोन आया। तुम्हे लगा कि वो नाराजगी ज़ाहिर करेगी। लेकिन उसने तो जिक्र तक नहीं किया। तुमसे रहा नहीं गया। पूछ ही बैठे- ' कैसी लगीं?' जवाब मिला -' अति सुंदर' उसने फोन रख दिया। तुम रात भर हवा में उड़ते रहे। आने वाले दिनों में लेन-देन का सिलसिला बढ़ता ही गया। इसी के साथ बढ़ती गयीं तुम दोनों की नजदीकियां। एम् आई राइट ?'

' याह, राइट।'

' साल गुजरते गये। तुम दोनों एक-दूसरे के आदी हो गये। अचानक तुम भारी मुसीबत में फंस गये। नौकरी गयी। जमीन गयी। पैसों की भारी तंगी। ऐसे कठिन समय किसी देवी की तरह उसने तुम्हें सहारा दिया। सोच कर देखो वो न होती तो क्या होता। '

' वाकई। '

' अपने सारे उसूलों को ताक पर रख दिया उसने। केवल एक ही धुन कि किसी भी तरह तुम्हें उदास या परेशान न होने दे। उसके सारे अपने उससे खफा हो गये। तब तुम्हारी खुशी की खातिर किसी की भी तो परवाह नहीं की। अपना हर फ़ैसला तुम पर छोड़ दिया। बारह साल में तो घूरे के भी दिन फ़िर जाते हैं, सो तुम्हारे भी फिरे। तुम कामयाब होते गये और वह दिन-ब-दिन अकेली। एक ही सपना था वह भी पूरा नहीं हुआ। मुकम्मल काबिलियत के बावजूद। जबकि तुम कोशिश करते तो शायद उसे उसके वाजिब मुकाम तक पहुंचा सकते थे। यह बात उसे हमेशा सालती रही। '

' सही बात है।'

' अचानक----हाँ---बिलकुल अचानक----हातिमताई बनने का एक मौका तुम्हारे हाथ लग गया। तुमने बिना भला-बुरा सोचे ----बिना कोई जाँच-पड़ताल किए , केवल दुनिया की निगाहों में हीरो बनने के लिए उसे दांव पर लगा दिया। तुम बाज़ी तो जीत गये लेकिन उसे हार गये। उसने तुम्हारी इस गलीज़ हरकत को भी सर-माथे लिया। तन-मन से अपने नये मालिकों को खुश करने में जुट गयी। तुम महीनों जीत के नशे में चूर रहे। नशा उतरा तो तिलमिला उठे। पगला गये। हारी हुई शय पर हक जताने की कोशिश की तो मुंह की खाई। छि, कितने गंदे हो तुम !'

' क्या मैं उसे प्यार नहीं करता ?'

' नो।'

' उसका भला नहीं चाहता।'

' नहीं।'

' ये झूठ है।'

' यही सच है।'

' प्लीज्ज्ज़, मुझे समझने की कोशिश करो। मैं उसका बुरा थोड़े ही चाहता हूँ। मैं क्या उसका दुश्मन हूँ ?'

' हाँ।'

' क्या हाँ ?'

' तुम उसके दुश्मन हो।'

' कैसे ?'

' कैसे !'

' हाँ कैसे ?'

' बात को यूँ समझो----एक लडकी है।'

' ठीक।'

' उसकी शादी हो गयी।'

' हो गयी।'

' अब उसका एक पति भी है।'

' वो भी हुआ।'

' दोनों मिलकर पति-पत्नी हुए। '

' हो गये, तो ?'

' पति-पत्नी हैं तो संतान भी होगी।'

' तो ?'

' लडकी माँ बनेगी?'

' क्यों नहीं बनेगी ?'

' तो अब नया त्रिकोण हुआ- पति, पत्नी और मानस।'

' मानस कौन ?'

' आने वाला मेहमान।'

' नाम भी तय हो गया ?'

' हाँ।'

' तो ?'

' मियां-बीवी और आने वाला शिशु। तीनों एक-दूसरे को समझने, सहेजने और महसूसने में सक्षम। इस मुकम्मल फ्रेम में तुम कहीं फिट ही नहीं होते।'

' ऐसा ?'

' बिलकुल, लेकिन तुम हो कि सब कुछ समझकर भी कुछ नहीं समझना चाहते। उसका जीना मुहाल कर रखा है। अभी भी अपनी मर्जी थोपना चाहते हो। हारी हुई सल्तनत पर हुकूमत नहीं चलती दोस्त ! अरे भाई , उसे चैन से जीने क्यों नहीं देते ? वह अपनी दुनिया में खुश है, उसे खुश रहने क्यों नहीं देते ? सोचो जरा, अगर तुम अपरिहार्य होते तो इतने दिन तुम्हारे बिना रह सकती थी ?--- नहीं ना--- ? फ़िर ? ------इस सच को स्वीकार कर लो माय डिअर -----चैप्टर हैज बीन क्लोज्ड।'

'समझ गया?'

' क्या समझ गये ?'

' चैप्टर हैज बीन क्लोज्ड।'

' अब ?'

' अब क्या, नमस्ते ! ----चलता हूँ !'

' आते रहना।'

' ज़रूर।'

------------ ' सुनो---, ये इलायची का पैकेट तो लेते जाओ।'

' अब इसकी ज़रू़रत नहीं ---- जिसने दी थीं वही नहीं रही तो इनका क्या करूंगा ? किसी सुपात्र को दे देना------'

- रवींद्र




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